अम्बेडकर की चेतावनी के विपरीत: दलित समुदाय का राजनीतिक मुस्लिम समर्थन एक विडंबना

 आर्यन प्रेम राणा, संस्थापक #VRIGHTPATH (www.vrightpath.com New tab)

आज, जब हम 6 दिसंबर को पड़ने वाली डॉ. भीमराव अंबेडकर के 68वे परिनिर्वाण दिवस के अवसर पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, तो मैं हाल ही में संपन्न महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से निकले कुछ गहरे और महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा करना चाहता हूँ। इन चुनावों में बीजेपी और उसके सहयोगी—एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना और अजित पवार के नेतृत्व वाले एनसीपी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की। 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में पहली बार विपक्ष का नेता नहीं होगा।


यह चुनाव एक अभूतपूर्व राजनीतिक एकजुटता का संकेत देता है, जो 2024 के लोकसभा चुनावों से बिल्कुल अलग है, जहां विपक्षी पार्टियों ने संविधान के नाम पर डर फैलाकर विभाजन पैदा करने में सफलता हासिल की थी। विशेष रूप से, एक उल्लेखनीय परिवर्तन यह है कि हिंदुओं के बीच जातिगत विभाजन धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं, और एक व्यापक एकता का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। यह चुनाव राजनीतिक एकता की एक नई मिसाल पेश करता है। लेकिन एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि जहाँ जातिगत आधार पर बँटे हुए हिंदू अब एकजुट होते दिख रहे हैं, वहीं कुछ दलित और नवबौद्ध समुदाय के सदस्य, डॉ. अंबेडकर की चेतावनियों के विपरीत, उन विचारधाराओं और समूहों के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्होंने हिंसा और कट्टरता को बढ़ावा दिया है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर चुप्पी और कुछ समूहों द्वारा तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस्लामी कट्टरपंथ का समर्थन।

डॉ. भीमराव अंबेडकर एक दूरदर्शी नेता थे, सामाजिक न्याय के प्रबल समर्थक और हाशिए पर खड़े समुदायों के अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्ष करने वाले। उन्होंने जाति की बाधाओं को पार कर भारत को एक समतावादी और लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनका संघर्ष करोड़ों लोगों के लिए गरिमा और समानता की प्रेरणा बना।

डॉ. अंबेडकर ने संविधान की प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" शब्दों को जोड़ने का विरोध किया था। उनका मानना था कि इन विचारों को संविधान के माध्यम से थोपना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ होगा। उनके अनुसार, संविधान एक ऐसा लचीला दस्तावेज होना चाहिए जो समाज की बदलती जरूरतों के अनुसार विकसित हो सके। उन्होंने कहा कि एक लोकतांत्रिक राज्य को अपने नागरिकों को इस बात की स्वतंत्रता देनी चाहिए कि वे अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार सामाजिक और आर्थिक प्रणाली को अपनाएँ।


डॉ. अंबेडकर ने इस्लाम की विभाजनकारी प्रकृति और भारत की लोकतांत्रिक संरचना के साथ इसकी असंगति पर भी विस्तार से लिखा। अपनी पुस्तक "पाकिस्तान या भारत का विभाजन" में उन्होंने लिखा:

"हिंदू धर्म को लोगों को विभाजित करने वाला कहा जाता है, और इस्लाम को जोड़ने वाला धर्म। लेकिन यह केवल आधा सच है। इस्लाम उतना ही विभाजित करता है जितना कि वह जोड़ता है। यह एक बंद संगठन है, और मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो अंतर करता है, वह वास्तविक, सकारात्मक और अलगावपूर्ण है। इस्लामी भाईचारा मानवता के लिए सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। यह केवल मुसलमानों के लिए है। जो इस भाईचारे के बाहर हैं, उनके लिए केवल तिरस्कार और दुश्मनी है।"


उन्होंने यह भी चेताया कि इस्लामी विचारधारा, विशेष रूप से उम्माह की अवधारणा, एक मुसलमान की निष्ठा को उसके देश के बजाय धर्म पर आधारित करती है। उनके शब्दों में, "इस्लाम कभी भी एक सच्चे मुसलमान को भारत को अपनी मातृभूमि मानने की अनुमति नहीं दे सकता, जब तक कि यहाँ इस्लामी शासन स्थापित न हो।"

आप उनकी इस पुस्तक को पढ़े जिसके पन्नो पर आपको मुसलमानों की वास्तविक मानसिकता के बारे में साफ़ साफ़ लिखा मिलेगा !

डॉ. अंबेडकर की ये चेतावनियाँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उनके समय में थीं। फिर भी, यह विडंबना है कि उनके अनुयायी, विशेष रूप से दलित समुदाय, उन विचारों और तत्वों के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिनकी उन्होंने कड़ी आलोचना की थी। यह उनकी सोच और आदर्शों से एक विचलन है।

आज जब हम डॉ. अंबेडकर को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, हमें यह समझना होगा कि भारत के लिए एकजुट हिंदू समाज कितना आवश्यक है। जैसे पितामह भीष्म ने अपने जीवन का बलिदान देकर भारत के भविष्य की रक्षा की, वैसे ही हमें भी आने वाले दशकों में मौजूद गंभीर चुनौतियों को पहचानना होगा। इनमें गजवा-ए-हिंद का कट्टरपंथी एजेंडा और बढ़ती जनसांख्यिकीय असंतुलन जैसी समस्याएँ शामिल हैं, जो अगर समय रहते नियंत्रित नहीं हुईं, तो देश के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं।

डॉ. अंबेडकर की सोच, जो लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य की अनुकूलन क्षमता पर आधारित थी, आज भी हमारा मार्गदर्शन करती है। हमें उनकी शिक्षाओं और चेतावनियों को समझने और उनके अनुसार कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि उनके सपनों का भारत साकार हो सके—एक ऐसा भारत जो समानता, न्याय और सद्भाव पर आधारित हो।

धन्यवाद।

जय भारत।



Comments

Popular posts from this blog

चुप रहिए कोई सुन लिया या देख लिया तो ? | जब पीड़ित अकेला पड़ जाए | क्या परिवार, समाज और पुलिस सिर्फ मूक दर्शक हैं?

त्रिवेणी संगम से सुप्रीम कोर्ट तक: आधुनिक भारत के दो पहलू!

महाकुंभ 2081 में 45 करोड़ लोग कैसे आ रहे हैं | सीने में जलन और अंधविश्वास क्यों हैं?

देवभूमि लोक कला उद्गम चैरिटेबल ट्रस्ट और उत्तराखंडी समाज ऐरोली द्वारा जरुरतमंदों को व्हीलचेयर वितरण एवं माता की चौकी का भव्य आयोजन

पुरानी और उपयोग की गई कारों की बिक्री पर जीएसटी: संदेह और गलतफहमि

डॉ. अंबेडकर पर विवाद: कांग्रेस की ऐतिहासिक उपेक्षा और राजनीतिक दोहरे मापदंड उजागर

महाराष्ट्र: बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के खिलाफ मुंबई में प्रदर्शन

17वी लोकशभा चुनावो में करेंगे बेडा पार मोदी सरकार के 17 ऐतिहासिक व् साहसिक फैसले

दूसरे दिन मंच पर जुटे सितारे, अनुकृति गुसाईं व प्रशांत ठाकुर ने देखा कौथिग

क्या आप भी देखते है एक बेहतर उत्तराखंड का सपना?