चुप रहिए कोई सुन लिया या देख लिया तो ? | जब पीड़ित अकेला पड़ जाए | क्या परिवार, समाज और पुलिस सिर्फ मूक दर्शक हैं?
करीब तीन दशक पहले आई फिल्म दमिनी (1993) ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया था। इस कहानी में एक बहादुर महिला, दमिनी, अपने घर की नौकरानी के साथ हुए बलात्कार की सच्चाई जानने के बाद — अपने ही परिवार के विरुद्ध खड़ी होती है। अपने पति और एक जुझारू वकील की मदद से वह अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाती है, भले ही पूरा समाज उसके सामने खड़ा हो जाए।
दमिनी सिर्फ एक फिल्म नहीं थी — यह उन सैकड़ों घरों का प्रतिबिंब थी जहां अन्याय होता है, और अक्सर कोई कुछ नहीं कहता।
आज भी ऐसे सैकड़ों दमिनी जैसे संघर्ष देशभर में दोहराए जा रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जहाँ पहले अधिकतर पीड़ित महिलाएं थीं, आज पुरुष भी घरेलू हिंसा, मानसिक नियंत्रण और सामाजिक उपेक्षा का शिकार बन रहे हैं।
परिवारजन: समर्थन या चुप्पी?
जब किसी व्यक्ति के साथ घर में ही शोषण होता है — चाहे वह महिला हो या पुरुष — सबसे पहले उसे अपने निकटतम रिश्तेदारों से उम्मीद होती है।
परंतु हकीकत में:
· कुछ परिजन सच्चाई जानते हुए भी चुप रहते हैं
· कुछ अपने संबंध बचाने को प्राथमिकता देते हैं, न कि पीड़ित की सुरक्षा को
· कुछ लोग पीड़ित को ही दोष देने लगते हैं — “कुछ तो किया होगा”
यह भावनात्मक त्याग पीड़ित को और भी असहाय बना देता है।
चुप्पी, निष्पक्षता नहीं होती — यह मौन समर्थन होता है अन्याय का।
पड़ोसी: दर्शक या साक्षी?
“ये उनका पारिवारिक
मामला है” —
यह वाक्य अब
समाज का सबसे
बड़ा बचाव बन
चुका है।
जब पड़ोसी रोने-चीखने की आवाज़
सुनते हैं, तो
दरवाज़े बंद कर
लेते हैं।
और जो कोई
बोलने की कोशिश
करता है, उसे
“बहुत टांग अड़ाने
वाला” कहा जाता
है।
लेकिन याद रखिए — जो चुप रहता है, वह अन्याय का हिस्सा बन जाता है।
पुलिस: कानून का रक्षक या औपचारिकता निभाने वाला?
जब बात पुलिस तक पहुंचती है, तब भी कई बार जवाब होता है:
· “घरेलू मामला है, आपस में सुलझा लो”
· “कोई बड़ी बात नहीं है, अक्सर झगड़े होते हैं”
· “लिखित शिकायत लाओ, तभी कुछ होगा”
कानून स्पष्ट कहता है
कि घरेलू हिंसा, उत्पीड़न, निजता हनन जैसी घटनाओं में पुलिस स्वतः संज्ञान ले सकती है।
फिर ये अनदेखी
क्यों?
केवल महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी होते हैं शोषण का शिकार
हमारा सामाजिक ढांचा यह मानकर चलता है कि केवल महिलाएं ही घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं — और हाँ, संख्या में वे अधिक हैं।
लेकिन अब यह आधे सच जैसा है।
बहुत से पुरुष भी घरेलू हिंसा, भावनात्मक शोषण, आर्थिक नियंत्रण, और समाजिक बदनामी का सामना कर रहे हैं:
· पत्नी द्वारा शारीरिक हमला
· आत्महत्या या झूठे आरोप की धमकी
· बच्चों से अलगाव और अपमान
· सार्वजनिक रूप से कपड़े उतरवाना या वीडियो बनाना
लेकिन जब पुरुष
यह बताते हैं
तो लोग हँसते
हैं —
“अरे मर्द होकर
पिट रहे हो?”
यही मानसिकता उन्हें
खामोशी और अवसाद की ओर
ले जाती है।
जब हर कोई चुप रहे तो क्या होता है?
· पीड़ित खुद को ही दोषी समझने लगता है
· आत्म-संयम, आत्म-सम्मान, आत्मबल — सब टूटने लगता है
· और कभी-कभी यह चुप्पी जानलेवा बन जाती है
और तब भी, समाज कहता है — “हमें क्या लेना-देना?”
हम कब बोलेंगे?
न्याय सिर्फ अदालतों से
नहीं आता।
वह आता है
तब, जब एक
इंसान दूसरे इंसान के दर्द को समझकर बोल उठता है।
यदि दमिनी की तरह कोई महिला या पुरुष अपने घर में सच्चाई के लिए खड़ा होता है, तो क्या हम उसका साथ देंगे — या उस पर सवाल उठाएंगे?
आज ज़रूरत है
कि हम पुरुष
हो या महिला
— हर पीड़ित की आवाज़ बनें।
रिश्ते तोड़े नहीं, लेकिन
सच्चाई के साथ खड़े रहना सीखें।
क्योंकि चुप्पी सिर्फ एक विकल्प नहीं है — यह कभी-कभी अपराध के बराबर होती है।
यह लेख किसी एक मामले पर आधारित नहीं है, बल्कि समाज में घटित होने वाली वास्तविकताओं की प्रतीकात्मक प्रस्तुति है। कोई भी समानता केवल संयोग हो सकती है।)
Comments
Post a Comment